tag:blogger.com,1999:blog-9107759159208175452024-02-08T07:43:31.647+05:30'मैं झूठ के दरबार में सच बोल रहा हूँ...'Unknownnoreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-75914655547039489982007-09-12T17:06:00.000+05:302008-11-19T11:58:54.405+05:30बीती विभावरी, जाग री...<a href="http://4.bp.blogspot.com/_uudjhDUN8iM/RufWqxkngRI/AAAAAAAAACo/a17jwWrXfPA/s1600-h/250px-Hindi_belt.gif"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5109288332624888082" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="http://4.bp.blogspot.com/_uudjhDUN8iM/RufWqxkngRI/AAAAAAAAACo/a17jwWrXfPA/s320/250px-Hindi_belt.gif" border="0" /></a>अभी कुछ देर पहले आईआईटी के सामने से गुज़रा तो देखा कि हिंदी पखवाड़े का बड़ा सा बैनर मुख्य द्वार पर नत्थी कर दिया गया है. यानी हिंदी की सरकारी सेवा का सरकारी समारोह आजकल चल रहा है. हिंदी की बरसी भी इसी दौरान मना ली जाएगी... 14 सितंबर को.<br /><br />पिछले कुछ दिनों से हिंदी की सामाजिक सत्ता को लेकर एक बात मन में रही है, उसे सोचता हूँ कि इस मौके पर आप लोगों के सामने रख दूँ.<br /><br />एक कहानी कई किताबों, फ़िल्मों, उपन्यासों में अलग-अलग पात्रों के साथ देखने-पढ़ने को मिली है. गाँव की मिट्टी में खेल-सीखकर एक बच्चा बड़ा होता है, शहर जाता है और फिर बड़ा साहेब हो जाता है. इस दौरान वो अपनाता है अंग्रेज़ी में चलते देश को, महानगरीय परिवेश को, आंग्लभाषी प्रेमिका, अंग्रेज़ी ख़ाना और अंग्रेज़ी जीवन शैली को. यहाँ तक सब ठीक है.<br /><br />दिक्कत तब शुरू होती है जब माँ की भाषा और पिता की धोती से वो स्वयं को लज्जित समझने लगता है. जब सेब, आम, तोता, किताब, मक्खन, रोटी, कविता, नमस्ते जैसे शब्दों को छोड़कर वो अपने मित्रों, परिवेश और अगली पीढ़ी को इनका अंग्रेज़ी संस्करण परोसने लगता है. हम लोगों में से कितने लोग ऐसे हैं जो हिंदी में हस्ताक्षर करते हैं, हिंदी में एटीएम से लेन-देन का काम करते हैं वगैरह... दरअसल, हम हिंदी की फ़िल्म तो देख रहे हैं, पर हिंदीपने को खोते जा रहे हैं और मेरी समझ में केवल बोलने भर से किसी भाषा की सामाजिक सत्ता स्थापित नहीं होती. व्यवहार का इसमें बड़ा योगदान होता है.<br /><br />हम पखवाड़ों और गोष्ठियों से इस व्यक्ति के मन में न तो भाषा के प्रति सम्मान, गर्व और समझ बढ़ा पा रहे हैं और न ही उसे हिंदी की जीवन शैली के क़रीब बने रहने का रास्ता दिखा रहे हैं. ऐसे में सरकारी खानापूर्ति केवल मौत पर तेरहवीं और चालीसवें की रस्म भर रह गया है.<br /><br />वैसे भी सरकारी आयोजनों से कुछ सधने वाला नहीं है. कम से कम हिंदी का तो कुछ भी नहीं सधेगा क्योंकि सरकारें जब भारत के गाँव नहीं साध सकीं तो वहाँ के लोगों की भाषा और हिंदीपने को क्या साध पाएंगी. बंगाली मिलते हैं तो बांग्ला में बोलते हैं, गुजराती, मराठी, मलयाली अपनी भाषा में.. ख़तरा केवल हिंदी पर ही क्यों दिख रहा है, इसकी पड़ताल भी हो और यह भी देखा जाए कि हिंदी के ख़तरे की दुहाई गाने वाला भी कहीं यही गाँव से आया आधुनिक हिंदीभाषी तो नहीं है क्योंकि हिंदी बोलने वाला बहुमत समाज जो ग़रीबों और आमजन के बीच है, इस ख़तरे को महसूस नहीं करता.<br /><br />दरअसल, हिंदी अपनी सीमाओं, लोगों, गाँवों और आमजन के बीच की भाषा है. उसकी सामाजिक सत्ता वहाँ क़ायम है. केंद्रीय सत्ता और उसके विकासपरक सूचकांकों में इसकी जगह न थी, न है और न होती नज़र आती है. रही बात हिंदीपने की तो भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी के सामने कोई अकेला संकट नहीं है, संकट में सब हैं. संकट में सब हैं. भू भी, भू मंडल भी.Unknownnoreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-7283314010926414632007-06-03T13:19:00.000+05:302008-11-19T11:58:54.536+05:30एक अहम सवाल...<img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5071747550376011490" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhE4A-R1p7YYIuWiICaOtPCckVWGRX7Q5UOtWSCTWlXqidWygzV5COEMHeoY0r611CxHxmv5HIUd5lexCt_tHlzhe4Il6s7YKnp0GJVeRlqdP2RSN8j7dYKMO8nMR1N2_J-oS0n64TajjI/s320/muslim.jpg" border="0" />हैदराबाद के धमाकों के बाद एक बात पर बहस फिर से शुरू हो गई कि धमाके के पीछे किस मजहब के लोगों का हाथ है. कहाँ से आए ये आतंकवादी और कौन सा देश है इनके पीछे...<br /><div></div><br /><div>यह दलील अक्षरधाम, संसद पर हमले, राम जन्मभूमि के पास विस्फोट, बनारस और दिल्ली के धमाकों तक ख़ूब जमकर प्रचारित की गई. इसके बाद से मुसलमान इस देश के दुश्मन हैं, की धारणा को और हवा दी गई पर मुंबई, जामा मस्जिद, मालेगांव और हैदराबाद के बारे में इसी दलील को दोहराना अटपटा और नासमझी भरा है.</div><br /><div></div><br /><div>धमाकों के तुरंत बाद आनन-फानन ने कुछ विदेशी मुस्लिम चरमपंथी संगठनों का हवाला दे दिया गया कि साजिश के पीछे इनका हाथ हो सकता है. मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इसका विरोध किया और कहा कि ऐसा तो कोई ग़ैर-मुसलमान ही कर सकता है.</div><br /><div></div><br /><div>अब यहाँ मैं दो पहलुओं पर ध्यान दिलाना चाहता हूँ. एक तो यह कि पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान और इराक़ में धमाके भी मुसलमान कर रहे हैं और मर भी मुसलमान ही रहे हैं इसलिए ऐसा कहना थोड़ा-सा मुश्किल है कि कोई मुसलमान मस्जिद में ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि इस तरह के हमले करने वालों का कोई मजहब होता ही नहीं. बल्कि इस तरह देखें कि अक्सर धर्म का ग़लत इस्तेमाल और उसको नुकसान, उससे अनुयायियों के साथ अन्याय उन लोगों ने ही किया है जो उसके ठेकेदार बने हैं.</div><br /><div></div><br /><div>भारत के संदर्भ में देखें तो पिछले तीन दशकों में देशभर में जिस तरह के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का काम अलग-अलग संप्रदायों के ठेकेदारों ने किया है उसके बाद सोच के लिए एक ही बिंदु पर अटके रहना बेमानी है.</div><br /><div></div><br /><div>चाहे वो खालिस्तान की मांग कर रहे सिख गरमपंथी हों या फिर देशभर में हिंदुत्व की ठेकेदारी जमा रहे हिंदू चरमपंथी, हिंसा और हमले के मामले में इनकी तैयारी न तो कच्ची है और न कम है. गुजरात जिस तैयारी और क्रूरता के साथ अंजाम दिया गया, उससे इसका साफ अंदाज़ा लगाया जा सकता है.</div><br /><div></div><br /><div>मेरा इशारा इस ओर है कि इस तरह की घटनाओं के पीछे या अली ही नहीं, जय बजरंग बली का भी नारा हो सकता है. सोच के दायरे और तरीके को अब बदलने की ज़रूरत है वरना प्रशासन और लोगों की यह सोच देश के धर्मनिरपेक्ष चेहरे को ही बदल देगी.</div>Unknownnoreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-12094966219979538172007-05-19T21:17:00.000+05:302008-11-19T11:58:54.774+05:30...और अब हैदराबाद में<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivHEvtgrEzHUNtt1uL5CLN7AFeSdNoYMRcgrYbVOh_IFJOaFEG6YIb5Hfht_x7c2Mtd7hpvcFNcvjb8XfwAw_gLyDTHeuM60pKCRAfK2JG8O48h3dO-NG-a77y2o0sb7KXPTGZNws-TNQ/s1600-h/20060414165100blood_delhi203.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5066306383647472882" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivHEvtgrEzHUNtt1uL5CLN7AFeSdNoYMRcgrYbVOh_IFJOaFEG6YIb5Hfht_x7c2Mtd7hpvcFNcvjb8XfwAw_gLyDTHeuM60pKCRAfK2JG8O48h3dO-NG-a77y2o0sb7KXPTGZNws-TNQ/s320/20060414165100blood_delhi203.jpg" border="0" /></a>जुमे की नमाज़ और चार मीनार पर स्थित मक्का मस्जिद. दोपहर का वक्त और सबकुछ सामान्य-सा, पर सहसा एक धमाका और क़ीमत कुछ ज़िंदगियाँ, कुछ ज़ख़्म, कुछ नुकसान और बहुत सारी अशांति, कौतुहल, चिंता, गुस्सा.. न जाने क्या क्या.<br /><div></div><br /><div>क्या बनारस और क्या मालेगांव, क्या मुंबई के आम लोग और क्या चार मीनार पर ईरानी चाय के दुकानदार, पाँच वक्त के नमाज़ी. सबको इस ज़ख़्म को झेलना पड़ा है.</div><div> </div><div>कभी आप हैदराबादी पान की गिलोरियों से पहले यहाँ चार मीनार पर ईरानी चाय और कुछ ख़ास नमकीनों, फैनियों का मज़ा लें तो जात-धरम का फ़र्क भूल जाएं. शाम को तबे पर सिकते पराठे और धुंधली रौशनी में नहाई हुई मक्का मस्जिद यहाँ की फ़िज़ा और और शानदार और अमनपसंद बनाती हैं.</div><br /><div></div><br /><div>फिर कौन बिगाड़ रहा है यह तस्वीर... ये कौन कर रहा है... कौन है उनका रहबर और कैसी है यह रहबरी. किस मजहब के हैं ये... कौन से भगवान और पैगंबर ने इन्हें इसकी इजाज़त दी है. </div><br /><div></div><br /><div>इसपर फ़ैज़ की कुछ पंक्तियाँ ध्यान आती हैं-</div><br /><div></div><br /><div><strong>यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से तल्ख,</strong></div><div><strong>न उनकी रीत नई है न अपनी प्रीत नई.</strong></div><div><strong>यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल, </strong></div><div><strong>न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई...</strong></div><br /><div></div><br /><div>इसी हौसले से हमें इस स्थिति से भी उबरना है. माहौल ख़राब करने वाले भूख से हो रही मौत के सवाल को नहीं जानते. न ही बेरोज़गारी के दंश को समझते हैं. वो एक कथित मजहबी मकसद की बात करते हैं पर उनसे बड़ा अधर्मी, उनसे बड़ा काफ़िर कोई नहीं. इन्हें सिरे से ख़ारिज करना चाहिए. </div>Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-52500727399008098282007-04-04T02:51:00.000+05:302008-11-19T11:58:54.980+05:30कोउ नृप होए, हमै का हानि...<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOSFa8wRfA1MNP69RS0bFMa-NYquKSvbVGeRbrSsOwafEEm-n0GxitoioRxcJuMykWRpBHiYLVL_NAStVBJU_FtvD8ngNeE0kfzRKYoPWP79CGuS60UOxKhkV90W7a5u0cW4Pulmn5eWU/s1600-h/126.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5049316160151127442" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOSFa8wRfA1MNP69RS0bFMa-NYquKSvbVGeRbrSsOwafEEm-n0GxitoioRxcJuMykWRpBHiYLVL_NAStVBJU_FtvD8ngNeE0kfzRKYoPWP79CGuS60UOxKhkV90W7a5u0cW4Pulmn5eWU/s320/126.JPG" border="0" /></a>उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का पहला चरण क़रीब है. कहावत है, जहाँ-जहाँ चरन पड़े नेतन के, तहाँ-तहाँ बंटाढार. सातों चरणों की परिणति ऐसी ही होनी है. मार्क्स मुनि ने कहा था कि ग़रीबों, तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में यह एकदम सटीक लगता है. राज्य के करोड़ों मतदाताओं के पास खोने को कुछ नहीं है. नोट भी नहीं, कोट भी नहीं, निठारी बच्चे निगल चुका है तो सेज़ लोगों की ज़मीनें निगल रहा है. रोज़गार केवल सहारा दे सकता है. रोटी राशन की सरकारी दुकान पर नहीं, दलाली के भंडारों में हैं. इंसाफ़ की मूर्ति एंटीक थी सो तस्करी करके किसी अज्ञात को बेंच दी गई. बिजली के खंभे कुत्तों के लिए हैं और सड़कें अस्पताल से पहले प्रसव के लिए. अस्पताल में मरने के बाद ही जाएं.. ‘सबको शिक्षा’ है पर सरकारी स्कूल में नहीं, कोचिंग और कान्वेंट में.<br /><br />विकास का पहिया केवल एक साइकिल में जुता है. उसपर लाल टोपी वाले घर का कब्ज़ा है. हाथी के दांत तो पहले से ही खाने के और, दिखाने के और हैं. कमल से न तो सब्जी बनेगी और न सूखी जर्जर कायाओं का सिंगार, कीचड़ और लग जाएगा. रही बात हाथ की.. वो तो दीनों का हाथ है. उसमें न तो वोट हैं और न भाग्य की लकीरें दिखाई दे रही हैं. बब्बर शेर को लोग फ़िल्मी मानकर हल्के में ही लेते हैं और हसिया दराती संभाले हाथों को काटने के लिए तिनके भी नहीं मिल रहे.<br /><br />बाकी बचे मतदाता.. यानी हम. तो हम तो हमेशा से इंद्रों को अपनी हड्डियाँ सौंपते रहे हैं. जो दीन-हीन चेहरा बनाकर वोट माँग लेगा, उसे ही दे आएंगे. असल में, सोच समझ के देने के लिए कोई है ही नहीं. पूरा राज्य चरागाह की दूब और सारी राजनीतिक पार्टियाँ सदियों से भूखी वैशाखनंदन की नस्लें... हम चारे के काम आ रहे हैं...बेचारे.<br /><br />शायद लोकतंत्र के वर्तमान संस्कार ने खिलाने के हाथ कम, खाने के दांत ज़्यादा दे दिए हैं. सो हे नृप, आप आते रहिए, खाते रहिए.<br /><br />हमारा क्या है...<br /><strong>अपनी कहानी? न चंदन, न पानी</strong><br /><strong>कोउ नृप होए, हमैं का हानि</strong>Unknownnoreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-45613664200992009392007-03-14T17:02:00.000+05:302008-11-19T11:58:55.297+05:30पुनर्जन्म हो यदि मेरा….<a href="http://2.bp.blogspot.com/_uudjhDUN8iM/RfffIl5GjxI/AAAAAAAAABM/Wfs3ttdUZ6k/s1600-h/8.JPG"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5041743646568124178" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; CURSOR: hand" alt="" src="http://2.bp.blogspot.com/_uudjhDUN8iM/RfffIl5GjxI/AAAAAAAAABM/Wfs3ttdUZ6k/s320/8.JPG" border="0" /></a><br /><div><div><div>समाजवाद का सरौता अब सैफ़ई गांव से सधता नज़र नहीं आ रहा. तभी तो हमरे भइया चल पड़े गंगा किनारे. पता नहीं जीवन में कितनी बार गंगा नहाए हैं पर गीत ज़रूर सुना रहे हैं...पुनर्जन्म हो यदि मेरा तो फिर हो गंगा के तट पर...</div><div><br />माननीय बच्चन बाबू, गंगा किनारे के हम भी हैं और आपसे ज़्यादा करेर, पक्के, चोखे गंगा किनारे वाले हैं. आप राशनकार्ड तो एंबीवैली का रखते हैं और दावा करते हैं खाटी इलाहाबादी होने का. ये हाथी के दांत आप फ़िल्म उद्योग और गंगापारियों को ही दिखाएं, हम आपको गंगा किनारे वाला नहीं मानते.<br /><br />इसलिए, क्योंकि आप चंदौली, मिर्ज़ापुर, बनारस, भदोही और सोनभद्र में भूख से हो रही मौतों के बारे में कुछ नहीं जानते और न ही जानना चाहते हैं.<br /><br />क्योंकि हथकरघे के खाली पाटों को उबालकर पीते कबीर के वंशज आपको नज़र नहीं आते.<br /><br />क्योंकि बेरोज़गारी, अपहरण, हत्या, फिरौती और ठेकेदारी की दबंग लामबंदी की भेंट चढ़ते विकास जैसे संकटों से आपका कोई नाता नहीं है, आप उनके ख़ून बराबर कीमती राजकोष से मोटी रक़म पा रहे हैं, आप ब्राँड एंबेसडर जो ठहरे.<br /><br />क्योंकि आपके हाथ में जो उदघाटन की कैंची है, वह बाज़ार की चमक के रिबन और प्रदेश की आबरू बचाने वाले पेटीकोट के नाड़े के फ़र्क को नहीं जानती है. आप नहीं जानते आप क्या काट रहे हैं, किसका उदघाटन करे दे रहे हैं.<br /><br />इसलिए आप दोबारा अगर पैदा हों तो भारत में न हों, और अगर होना ही पड़े तो कम से कम गंगा किनारे न हों.... मुंबई में पैदा हो जाइए या फिर गुजरात में...यहाँ नहीं, गंगा किनारे नहीं.<br /><br /><strong>‘पुनर्जन्म हो यदि तेरा, तो न हो गंगा के तट पर….’</strong></div></div></div>Unknownnoreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-12840605587118900642007-03-07T14:52:00.000+05:302007-03-07T15:09:10.327+05:30वाक़ई कई रंग हैं होली के...होली पर आठ बरस बाद अपने घर गया. इस होली पर जाना यह सोचकर हुआ था कि चलो इसी बहाने कई दोस्तों के साथ मिलना-बैठना और मौज करना फिर से संभव होगा. ऐसा हुआ भी. कुछ क़रीबी यार मिले, रंग बरसे गाया और गुलाल लगाया.<br /><br />भौजियों से भेंट हुई और ठंडई के घूँट गटके. मस्ती फिर से छाई और हमने फिर से फाग गाया.<br /><br />.......पर इस बार एक बात कुछ ज़रा गौर करने पर समझ आई कि लोग एक-दूसरे को रंग कम ही लगा रहे हैं. कुछ फीकापन सा है. कुछ खिंचा-खिंचा सा एहसास. नज़ीर अकबराबादी की धूम और ख़ुसरो की झूम देखने को नहीं मिली.<br /><br />रंग और भी थे..... सच का साक्षात्कार कराते. यह तीन दृश्यों में सिमटे हैं.<br /><br />पहला, रायबरेली शहर के अकेले फ़्लाईओवर पर एक रिक्शेवाला अपने रिक्शे पर सफ़ेद कफ़न में लिपटी एक लाश ले जा रहा था. ताज़ा पोस्टमार्टम हुआ था और ख़ून की बूँदें उस होली पर एक सच उगलती जा रही थीं.<br /><br />दूसरा, शहर के एक हिस्से से गुज़रते हुए देखा कि एक गाय ने श्यामा बछिया को जन्म दिया है. मालिक आँवर हटा रहा है, मालकिन बाँस की पत्तियाँ खिला रही है और गाय बछिया को चाट रही है.<br /><br />तीसरा, सिविल लाइंस के चौराहे पर एक मानसिक विक्षिप्त महिला गले में किसी दूल्हे की माला डाले और शॉल को राजाओं के लबादे की तरह सड़क पर लथेड़ते हुए गा रही थी. उन्मत्त नाच रही थी. उसपर किसी ने कोई रंग नहीं डाला था. कितने ही लोग क़रीब से गुज़रे पर किसी को उसकी याद नहीं रही. होती भी कैसे, अब रंग बेगानों को कोई नहीं लगाता, केवल अपनों तक ही सबकुछ बाकी है और वह भी महज रस्म निभाने के लिए...<br />पर उसे तो शायद किसी रंग की ज़रूरत भी नहीं थी. उसका तो अपना ही रंग है...365 दिन क़ायम रहने वाला. पक्का चढ़ा हुआ. एक दिन रंग खेलने वालों से उसकी क्या बराबरी...Unknownnoreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-910775915920817545.post-66756573609945002272007-03-02T17:58:00.000+05:302007-03-09T15:54:47.939+05:30ख़तरे में हैं भगवान<div align="justify">तमिलनाडु मंदिरों को प्रदेश है. हर तरफ़, हर जगह, बेहिसाब मंदिर और इन मंदिरों में दर्शनार्थियों की बेहिसाब भीड़. कम से कम पर्यटन की दृष्टि से जो कुछ भी बताया-दिखाया जाता है, वो यहाँ के मंदिर ही हैं. </div><br /><div align="justify">एक बार तो ऐसा लगा कि इस राज्य का नाम अगर तमिलनाडु की जगह 'टैंपलनाडु' होता तो कुछ ग़लत नहीं था. शिव से लेकर दुर्गा तक और गणेश से लेकर विष्णु तक, तमाम अवतारों और नामों के देवी-देवता यहाँ के मंदिरों में विराजमान हैं. बेशक ऊटी और कोडइकोनाल जैसी पर्यटन की और भी जगहें यहाँ हैं पर ये सब अल्पसंख्यक हैं, बहुमत तो मंदिरों का ही है.<br /><br />मंदिरों के प्रदेश में इतने मंदिरों के अस्तित्व की क्या वजहें हैं, यह एक स्वाभाविक सा प्रश्न है. इतिहास के पन्नों को अगर पलटना शुरू करें तो पता चलेगा कि पिछले लगभग 1200 वर्षों में यहाँ तमाम भव्य मंदिरों का विकास हुआ और वो अपने-अपने समय के चोल, चालुक्य, पल्लव, पाँड्या, नायक आदि राजवंशों की देन हैं. यानी ऐसे स्थापत्य तो न के बराबर हैं जो किसी सिद्ध संत या जनसमुदाय द्वारा बनवाए और विकसित किए गए हों.<br /><br />जब इन मंदिरों के स्थापत्य और विकास के क्रम को पढ़ना और फिर प्रत्यक्ष रूप से देखना शुरू करेंगे तो पाएँगे कि आस्थाओं के अलावा परस्पर प्रतिस्पर्धा, अपने नाम के स्थापत्य और प्रदर्शन की महात्वाकाँक्षा इन मंदिरों की विशिष्ट वास्तुकला के पीछे की सबसे ख़ास वजह है.<br /><br />फिर चाहे वो चोल शासकों की मूर्तिकला और वास्तुकला के विस्तार की महात्वाकाँक्षा हो और या फिर नायकों द्वारा पुराने इतिहास के प्रमाणों पर अपने समय में की गई लीपापोती, इस प्रवृत्ति से कला का संवर्धन भी हुआ तो कई जगहों पर नुकसान भी.<br /><br /><strong>क़ायम हैं कुप्रथाएँ</strong><br /><br />ख़ैर, ये तो इतिहास की बातें हैं. आज का आलम कुछ दूसरा ही है. आस्था के नाम पर होने वाले तमाम तरह के कर्मकाँडों से कई विशिष्ट कलाकृतियों को नुकसान पहुँच रहा है. पिछले इतिहास के ये कई प्रमाण सैकड़ों वर्षों की यात्रा करते आ रहे हैं और धीरे-धीरे अपने अस्त की ओर बढ़ रहे हैं.<br /><br />विडम्बना यह है कि मठों और मंदिरों के संचालकों का प्रयास इन्हें बचाने का कम है, बाकी कई कुप्रथाओं और आडंबरों को बनाए रखने का ज़्यादा है. सबसे दुखद आज की दर्शन पद्धति और मंदिरों की संचालन समितियों द्वारा दर्शनार्थियों पर थोपी जा रही मनमानी नियमावली है.<br /><br />कई प्रसिद्ध मंदिरों में जब मैं पहुँचा तो पाया कि दर्शन कई श्रेणियों का था. एक था मुफ़्त में होने वाला दर्शन, जिसमें लोग 25 फीट की दूरी से दर्शन करते हैं. एक दर्शन 10 से 100 रूपये के बीच का था, जिसमें आप भगवान को 15 फीट की दूरी से देख सकते हैं. एक पाँच सौ और उससे ऊपर वाला भी था जो भगवान के सबसे करीब था. यानी प्रभु से निकटता आपकी आस्था पर नहीं, जेब के वजन पर आधारित है.<br /></div><div align="justify"><br />यहाँ फ़ोटो खींचना सख्त मना है. 50 रूपये के फ़ोटो टिकट के बाद भी आप केवल दीवारों और बाहर के दृश्यों की ही तस्वीर खींच सकते हैं, पर ख़बरदार जो गर्भगृह के भीतर फ़्लैश चमकाया, कैमरा जब्त हो जाएगा. ये बात और है कि गर्भगृह में बैठे भगवान की तमाम तस्वीरें आप मंदिर के प्रसाद वाले स्टाल से उनकी कीमत अदा करके ख़रीद सकते हैं. इस तरह यहाँ भगवान को 'कैप्चर' करने का 'एक्सक्लूसिव टेंडर' उठता है.<br /><br /><strong>भगवान को ख़तरा<br /></strong><br />इतने सब तामझाम के बाद भी भगवान ख़तरे में हैं. उन्हें ख़तरा अपने पंडों-पुजारियों और ठेकेदारों से नहीं है, ग़ैर-हिंदुओं से है.<br /><br />सभी प्रमुख मंदिरों के बाहर बड़े बोर्ड लगे हैं जिनपर साफ़ लिखा है, "नॉन हिंदूज़ आर नॉट एलाउड इंसाइड द टैंपल" यानी हिंदू नहीं हो तो मंदिर में नहीं जा सकते हो.<br />हालांकि मीनाक्षी मंदिर में आरती के समय बजने वाला पारंपरिक वाद्य, 'नादस्वरम' का प्रशिक्षण, यहाँ के कलाकार एक विश्वविख्यात मुस्लिम प्रशिक्षक से ही लेते हैं.<br /><br />सो अगर आप तमिलनाडु के मंदिरों की यात्रा पर निकलें तो जेब भारी रखें और प्रयास करें कि अपने साथ कोई ग़ैर हिंदू, या मान लीजिए आप ख़ुद हिंदू न हों, तो मंदिर में मत जाएं.<br /><br />नहीं समझे, अरे सवाल आस्था का नहीं है और न ही स्थापत्य के प्रमाणों को देखने का है. सवाल ख़तरे का है और भगवान ख़तरे में हैं.</div>Unknownnoreply@blogger.com0