विकास का पहिया केवल एक साइकिल में जुता है. उसपर लाल टोपी वाले घर का कब्ज़ा है. हाथी के दांत तो पहले से ही खाने के और, दिखाने के और हैं. कमल से न तो सब्जी बनेगी और न सूखी जर्जर कायाओं का सिंगार, कीचड़ और लग जाएगा. रही बात हाथ की.. वो तो दीनों का हाथ है. उसमें न तो वोट हैं और न भाग्य की लकीरें दिखाई दे रही हैं. बब्बर शेर को लोग फ़िल्मी मानकर हल्के में ही लेते हैं और हसिया दराती संभाले हाथों को काटने के लिए तिनके भी नहीं मिल रहे.
बाकी बचे मतदाता.. यानी हम. तो हम तो हमेशा से इंद्रों को अपनी हड्डियाँ सौंपते रहे हैं. जो दीन-हीन चेहरा बनाकर वोट माँग लेगा, उसे ही दे आएंगे. असल में, सोच समझ के देने के लिए कोई है ही नहीं. पूरा राज्य चरागाह की दूब और सारी राजनीतिक पार्टियाँ सदियों से भूखी वैशाखनंदन की नस्लें... हम चारे के काम आ रहे हैं...बेचारे.
शायद लोकतंत्र के वर्तमान संस्कार ने खिलाने के हाथ कम, खाने के दांत ज़्यादा दे दिए हैं. सो हे नृप, आप आते रहिए, खाते रहिए.
हमारा क्या है...
अपनी कहानी? न चंदन, न पानी
कोउ नृप होए, हमैं का हानि