Wednesday 4 April, 2007

कोउ नृप होए, हमै का हानि...

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का पहला चरण क़रीब है. कहावत है, जहाँ-जहाँ चरन पड़े नेतन के, तहाँ-तहाँ बंटाढार. सातों चरणों की परिणति ऐसी ही होनी है. मार्क्स मुनि ने कहा था कि ग़रीबों, तुम्हारे पास खोने को कुछ नहीं है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में यह एकदम सटीक लगता है. राज्य के करोड़ों मतदाताओं के पास खोने को कुछ नहीं है. नोट भी नहीं, कोट भी नहीं, निठारी बच्चे निगल चुका है तो सेज़ लोगों की ज़मीनें निगल रहा है. रोज़गार केवल सहारा दे सकता है. रोटी राशन की सरकारी दुकान पर नहीं, दलाली के भंडारों में हैं. इंसाफ़ की मूर्ति एंटीक थी सो तस्करी करके किसी अज्ञात को बेंच दी गई. बिजली के खंभे कुत्तों के लिए हैं और सड़कें अस्पताल से पहले प्रसव के लिए. अस्पताल में मरने के बाद ही जाएं.. ‘सबको शिक्षा’ है पर सरकारी स्कूल में नहीं, कोचिंग और कान्वेंट में.

विकास का पहिया केवल एक साइकिल में जुता है. उसपर लाल टोपी वाले घर का कब्ज़ा है. हाथी के दांत तो पहले से ही खाने के और, दिखाने के और हैं. कमल से न तो सब्जी बनेगी और न सूखी जर्जर कायाओं का सिंगार, कीचड़ और लग जाएगा. रही बात हाथ की.. वो तो दीनों का हाथ है. उसमें न तो वोट हैं और न भाग्य की लकीरें दिखाई दे रही हैं. बब्बर शेर को लोग फ़िल्मी मानकर हल्के में ही लेते हैं और हसिया दराती संभाले हाथों को काटने के लिए तिनके भी नहीं मिल रहे.

बाकी बचे मतदाता.. यानी हम. तो हम तो हमेशा से इंद्रों को अपनी हड्डियाँ सौंपते रहे हैं. जो दीन-हीन चेहरा बनाकर वोट माँग लेगा, उसे ही दे आएंगे. असल में, सोच समझ के देने के लिए कोई है ही नहीं. पूरा राज्य चरागाह की दूब और सारी राजनीतिक पार्टियाँ सदियों से भूखी वैशाखनंदन की नस्लें... हम चारे के काम आ रहे हैं...बेचारे.

शायद लोकतंत्र के वर्तमान संस्कार ने खिलाने के हाथ कम, खाने के दांत ज़्यादा दे दिए हैं. सो हे नृप, आप आते रहिए, खाते रहिए.

हमारा क्या है...
अपनी कहानी? न चंदन, न पानी
कोउ नृप होए, हमैं का हानि