Wednesday, 12 September 2007

बीती विभावरी, जाग री...

अभी कुछ देर पहले आईआईटी के सामने से गुज़रा तो देखा कि हिंदी पखवाड़े का बड़ा सा बैनर मुख्य द्वार पर नत्थी कर दिया गया है. यानी हिंदी की सरकारी सेवा का सरकारी समारोह आजकल चल रहा है. हिंदी की बरसी भी इसी दौरान मना ली जाएगी... 14 सितंबर को.

पिछले कुछ दिनों से हिंदी की सामाजिक सत्ता को लेकर एक बात मन में रही है, उसे सोचता हूँ कि इस मौके पर आप लोगों के सामने रख दूँ.

एक कहानी कई किताबों, फ़िल्मों, उपन्यासों में अलग-अलग पात्रों के साथ देखने-पढ़ने को मिली है. गाँव की मिट्टी में खेल-सीखकर एक बच्चा बड़ा होता है, शहर जाता है और फिर बड़ा साहेब हो जाता है. इस दौरान वो अपनाता है अंग्रेज़ी में चलते देश को, महानगरीय परिवेश को, आंग्लभाषी प्रेमिका, अंग्रेज़ी ख़ाना और अंग्रेज़ी जीवन शैली को. यहाँ तक सब ठीक है.

दिक्कत तब शुरू होती है जब माँ की भाषा और पिता की धोती से वो स्वयं को लज्जित समझने लगता है. जब सेब, आम, तोता, किताब, मक्खन, रोटी, कविता, नमस्ते जैसे शब्दों को छोड़कर वो अपने मित्रों, परिवेश और अगली पीढ़ी को इनका अंग्रेज़ी संस्करण परोसने लगता है. हम लोगों में से कितने लोग ऐसे हैं जो हिंदी में हस्ताक्षर करते हैं, हिंदी में एटीएम से लेन-देन का काम करते हैं वगैरह... दरअसल, हम हिंदी की फ़िल्म तो देख रहे हैं, पर हिंदीपने को खोते जा रहे हैं और मेरी समझ में केवल बोलने भर से किसी भाषा की सामाजिक सत्ता स्थापित नहीं होती. व्यवहार का इसमें बड़ा योगदान होता है.

हम पखवाड़ों और गोष्ठियों से इस व्यक्ति के मन में न तो भाषा के प्रति सम्मान, गर्व और समझ बढ़ा पा रहे हैं और न ही उसे हिंदी की जीवन शैली के क़रीब बने रहने का रास्ता दिखा रहे हैं. ऐसे में सरकारी खानापूर्ति केवल मौत पर तेरहवीं और चालीसवें की रस्म भर रह गया है.

वैसे भी सरकारी आयोजनों से कुछ सधने वाला नहीं है. कम से कम हिंदी का तो कुछ भी नहीं सधेगा क्योंकि सरकारें जब भारत के गाँव नहीं साध सकीं तो वहाँ के लोगों की भाषा और हिंदीपने को क्या साध पाएंगी. बंगाली मिलते हैं तो बांग्ला में बोलते हैं, गुजराती, मराठी, मलयाली अपनी भाषा में.. ख़तरा केवल हिंदी पर ही क्यों दिख रहा है, इसकी पड़ताल भी हो और यह भी देखा जाए कि हिंदी के ख़तरे की दुहाई गाने वाला भी कहीं यही गाँव से आया आधुनिक हिंदीभाषी तो नहीं है क्योंकि हिंदी बोलने वाला बहुमत समाज जो ग़रीबों और आमजन के बीच है, इस ख़तरे को महसूस नहीं करता.

दरअसल, हिंदी अपनी सीमाओं, लोगों, गाँवों और आमजन के बीच की भाषा है. उसकी सामाजिक सत्ता वहाँ क़ायम है. केंद्रीय सत्ता और उसके विकासपरक सूचकांकों में इसकी जगह न थी, न है और न होती नज़र आती है. रही बात हिंदीपने की तो भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी के सामने कोई अकेला संकट नहीं है, संकट में सब हैं. संकट में सब हैं. भू भी, भू मंडल भी.