तमिलनाडु मंदिरों को प्रदेश है. हर तरफ़, हर जगह, बेहिसाब मंदिर और इन मंदिरों में दर्शनार्थियों की बेहिसाब भीड़. कम से कम पर्यटन की दृष्टि से जो कुछ भी बताया-दिखाया जाता है, वो यहाँ के मंदिर ही हैं.
एक बार तो ऐसा लगा कि इस राज्य का नाम अगर तमिलनाडु की जगह 'टैंपलनाडु' होता तो कुछ ग़लत नहीं था. शिव से लेकर दुर्गा तक और गणेश से लेकर विष्णु तक, तमाम अवतारों और नामों के देवी-देवता यहाँ के मंदिरों में विराजमान हैं. बेशक ऊटी और कोडइकोनाल जैसी पर्यटन की और भी जगहें यहाँ हैं पर ये सब अल्पसंख्यक हैं, बहुमत तो मंदिरों का ही है.
मंदिरों के प्रदेश में इतने मंदिरों के अस्तित्व की क्या वजहें हैं, यह एक स्वाभाविक सा प्रश्न है. इतिहास के पन्नों को अगर पलटना शुरू करें तो पता चलेगा कि पिछले लगभग 1200 वर्षों में यहाँ तमाम भव्य मंदिरों का विकास हुआ और वो अपने-अपने समय के चोल, चालुक्य, पल्लव, पाँड्या, नायक आदि राजवंशों की देन हैं. यानी ऐसे स्थापत्य तो न के बराबर हैं जो किसी सिद्ध संत या जनसमुदाय द्वारा बनवाए और विकसित किए गए हों.
जब इन मंदिरों के स्थापत्य और विकास के क्रम को पढ़ना और फिर प्रत्यक्ष रूप से देखना शुरू करेंगे तो पाएँगे कि आस्थाओं के अलावा परस्पर प्रतिस्पर्धा, अपने नाम के स्थापत्य और प्रदर्शन की महात्वाकाँक्षा इन मंदिरों की विशिष्ट वास्तुकला के पीछे की सबसे ख़ास वजह है.
फिर चाहे वो चोल शासकों की मूर्तिकला और वास्तुकला के विस्तार की महात्वाकाँक्षा हो और या फिर नायकों द्वारा पुराने इतिहास के प्रमाणों पर अपने समय में की गई लीपापोती, इस प्रवृत्ति से कला का संवर्धन भी हुआ तो कई जगहों पर नुकसान भी.
क़ायम हैं कुप्रथाएँ
ख़ैर, ये तो इतिहास की बातें हैं. आज का आलम कुछ दूसरा ही है. आस्था के नाम पर होने वाले तमाम तरह के कर्मकाँडों से कई विशिष्ट कलाकृतियों को नुकसान पहुँच रहा है. पिछले इतिहास के ये कई प्रमाण सैकड़ों वर्षों की यात्रा करते आ रहे हैं और धीरे-धीरे अपने अस्त की ओर बढ़ रहे हैं.
विडम्बना यह है कि मठों और मंदिरों के संचालकों का प्रयास इन्हें बचाने का कम है, बाकी कई कुप्रथाओं और आडंबरों को बनाए रखने का ज़्यादा है. सबसे दुखद आज की दर्शन पद्धति और मंदिरों की संचालन समितियों द्वारा दर्शनार्थियों पर थोपी जा रही मनमानी नियमावली है.
कई प्रसिद्ध मंदिरों में जब मैं पहुँचा तो पाया कि दर्शन कई श्रेणियों का था. एक था मुफ़्त में होने वाला दर्शन, जिसमें लोग 25 फीट की दूरी से दर्शन करते हैं. एक दर्शन 10 से 100 रूपये के बीच का था, जिसमें आप भगवान को 15 फीट की दूरी से देख सकते हैं. एक पाँच सौ और उससे ऊपर वाला भी था जो भगवान के सबसे करीब था. यानी प्रभु से निकटता आपकी आस्था पर नहीं, जेब के वजन पर आधारित है.
मंदिरों के प्रदेश में इतने मंदिरों के अस्तित्व की क्या वजहें हैं, यह एक स्वाभाविक सा प्रश्न है. इतिहास के पन्नों को अगर पलटना शुरू करें तो पता चलेगा कि पिछले लगभग 1200 वर्षों में यहाँ तमाम भव्य मंदिरों का विकास हुआ और वो अपने-अपने समय के चोल, चालुक्य, पल्लव, पाँड्या, नायक आदि राजवंशों की देन हैं. यानी ऐसे स्थापत्य तो न के बराबर हैं जो किसी सिद्ध संत या जनसमुदाय द्वारा बनवाए और विकसित किए गए हों.
जब इन मंदिरों के स्थापत्य और विकास के क्रम को पढ़ना और फिर प्रत्यक्ष रूप से देखना शुरू करेंगे तो पाएँगे कि आस्थाओं के अलावा परस्पर प्रतिस्पर्धा, अपने नाम के स्थापत्य और प्रदर्शन की महात्वाकाँक्षा इन मंदिरों की विशिष्ट वास्तुकला के पीछे की सबसे ख़ास वजह है.
फिर चाहे वो चोल शासकों की मूर्तिकला और वास्तुकला के विस्तार की महात्वाकाँक्षा हो और या फिर नायकों द्वारा पुराने इतिहास के प्रमाणों पर अपने समय में की गई लीपापोती, इस प्रवृत्ति से कला का संवर्धन भी हुआ तो कई जगहों पर नुकसान भी.
क़ायम हैं कुप्रथाएँ
ख़ैर, ये तो इतिहास की बातें हैं. आज का आलम कुछ दूसरा ही है. आस्था के नाम पर होने वाले तमाम तरह के कर्मकाँडों से कई विशिष्ट कलाकृतियों को नुकसान पहुँच रहा है. पिछले इतिहास के ये कई प्रमाण सैकड़ों वर्षों की यात्रा करते आ रहे हैं और धीरे-धीरे अपने अस्त की ओर बढ़ रहे हैं.
विडम्बना यह है कि मठों और मंदिरों के संचालकों का प्रयास इन्हें बचाने का कम है, बाकी कई कुप्रथाओं और आडंबरों को बनाए रखने का ज़्यादा है. सबसे दुखद आज की दर्शन पद्धति और मंदिरों की संचालन समितियों द्वारा दर्शनार्थियों पर थोपी जा रही मनमानी नियमावली है.
कई प्रसिद्ध मंदिरों में जब मैं पहुँचा तो पाया कि दर्शन कई श्रेणियों का था. एक था मुफ़्त में होने वाला दर्शन, जिसमें लोग 25 फीट की दूरी से दर्शन करते हैं. एक दर्शन 10 से 100 रूपये के बीच का था, जिसमें आप भगवान को 15 फीट की दूरी से देख सकते हैं. एक पाँच सौ और उससे ऊपर वाला भी था जो भगवान के सबसे करीब था. यानी प्रभु से निकटता आपकी आस्था पर नहीं, जेब के वजन पर आधारित है.
यहाँ फ़ोटो खींचना सख्त मना है. 50 रूपये के फ़ोटो टिकट के बाद भी आप केवल दीवारों और बाहर के दृश्यों की ही तस्वीर खींच सकते हैं, पर ख़बरदार जो गर्भगृह के भीतर फ़्लैश चमकाया, कैमरा जब्त हो जाएगा. ये बात और है कि गर्भगृह में बैठे भगवान की तमाम तस्वीरें आप मंदिर के प्रसाद वाले स्टाल से उनकी कीमत अदा करके ख़रीद सकते हैं. इस तरह यहाँ भगवान को 'कैप्चर' करने का 'एक्सक्लूसिव टेंडर' उठता है.
भगवान को ख़तरा
इतने सब तामझाम के बाद भी भगवान ख़तरे में हैं. उन्हें ख़तरा अपने पंडों-पुजारियों और ठेकेदारों से नहीं है, ग़ैर-हिंदुओं से है.
सभी प्रमुख मंदिरों के बाहर बड़े बोर्ड लगे हैं जिनपर साफ़ लिखा है, "नॉन हिंदूज़ आर नॉट एलाउड इंसाइड द टैंपल" यानी हिंदू नहीं हो तो मंदिर में नहीं जा सकते हो.
हालांकि मीनाक्षी मंदिर में आरती के समय बजने वाला पारंपरिक वाद्य, 'नादस्वरम' का प्रशिक्षण, यहाँ के कलाकार एक विश्वविख्यात मुस्लिम प्रशिक्षक से ही लेते हैं.
सो अगर आप तमिलनाडु के मंदिरों की यात्रा पर निकलें तो जेब भारी रखें और प्रयास करें कि अपने साथ कोई ग़ैर हिंदू, या मान लीजिए आप ख़ुद हिंदू न हों, तो मंदिर में मत जाएं.
नहीं समझे, अरे सवाल आस्था का नहीं है और न ही स्थापत्य के प्रमाणों को देखने का है. सवाल ख़तरे का है और भगवान ख़तरे में हैं.
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