Wednesday 7 March, 2007

वाक़ई कई रंग हैं होली के...

होली पर आठ बरस बाद अपने घर गया. इस होली पर जाना यह सोचकर हुआ था कि चलो इसी बहाने कई दोस्तों के साथ मिलना-बैठना और मौज करना फिर से संभव होगा. ऐसा हुआ भी. कुछ क़रीबी यार मिले, रंग बरसे गाया और गुलाल लगाया.

भौजियों से भेंट हुई और ठंडई के घूँट गटके. मस्ती फिर से छाई और हमने फिर से फाग गाया.

.......पर इस बार एक बात कुछ ज़रा गौर करने पर समझ आई कि लोग एक-दूसरे को रंग कम ही लगा रहे हैं. कुछ फीकापन सा है. कुछ खिंचा-खिंचा सा एहसास. नज़ीर अकबराबादी की धूम और ख़ुसरो की झूम देखने को नहीं मिली.

रंग और भी थे..... सच का साक्षात्कार कराते. यह तीन दृश्यों में सिमटे हैं.

पहला, रायबरेली शहर के अकेले फ़्लाईओवर पर एक रिक्शेवाला अपने रिक्शे पर सफ़ेद कफ़न में लिपटी एक लाश ले जा रहा था. ताज़ा पोस्टमार्टम हुआ था और ख़ून की बूँदें उस होली पर एक सच उगलती जा रही थीं.

दूसरा, शहर के एक हिस्से से गुज़रते हुए देखा कि एक गाय ने श्यामा बछिया को जन्म दिया है. मालिक आँवर हटा रहा है, मालकिन बाँस की पत्तियाँ खिला रही है और गाय बछिया को चाट रही है.

तीसरा, सिविल लाइंस के चौराहे पर एक मानसिक विक्षिप्त महिला गले में किसी दूल्हे की माला डाले और शॉल को राजाओं के लबादे की तरह सड़क पर लथेड़ते हुए गा रही थी. उन्मत्त नाच रही थी. उसपर किसी ने कोई रंग नहीं डाला था. कितने ही लोग क़रीब से गुज़रे पर किसी को उसकी याद नहीं रही. होती भी कैसे, अब रंग बेगानों को कोई नहीं लगाता, केवल अपनों तक ही सबकुछ बाकी है और वह भी महज रस्म निभाने के लिए...
पर उसे तो शायद किसी रंग की ज़रूरत भी नहीं थी. उसका तो अपना ही रंग है...365 दिन क़ायम रहने वाला. पक्का चढ़ा हुआ. एक दिन रंग खेलने वालों से उसकी क्या बराबरी...

8 comments:

Unknown said...

गुरु, अच्‍छा लेआउट है। चंपे रहिए। मैंने आपके ब्‍लॉग को अपने ब्‍लॉग पर जोड़ लिया है। जाकर लिंक देखें।

अभिषेक

Unknown said...

i simply like tht ur too sensetive for senses itself........ unexpressable right now dont have time but i will comment on it later.
wait for tht... take care

Unknown said...

badhiya shuruaat hai...holi ki fiki hoti rangat ka andaz-e-bayan...

Anil Dubey said...

badhiya hai.to aapo blog ki dunia mein ghus hi gaye.nahiye maane.lage rahiye.

Yasser Usman said...

OonchiImaraton se ghar mera ghir gaya...Kuch log mere hisse ka suraj bhi kha gaye.
Yahi hai Sach baba ji...
lage rahiye...sahi ja rahe hain.

arvind said...

bahut hi behtreen observation hai..

Unknown said...

dats very true and truth is always bitter..n keep it up .

Unknown said...

ssa
mafi chahti hun.kai dino se chahte hue bhi waqt nahi nikalpaayi.jaisa maine likha tha pahle bhi bahot hi khoobsurati se aapne apni baat kahi.asar bhi hua ... ab holi mein bachpan wali masumiat nahi rahi... haalanki rang ab bhi lubhate hain par jo hath woh rang lagate hain unse jhijhak hoti hai.dilli ki holi pahli baar dekhi aisa mahsoos ho raha tha log holi ki nahi jung ki tayari kat rahe hain.jyadatar log rang gulalkam gubbare kharidate jyada nazar aaye.par sach kahun rango ki khoobsurati aaj bhi barkaraar hai agar aap dil se mahsoos karen... itna hi kahna tha...
preet