क्या बनारस और क्या मालेगांव, क्या मुंबई के आम लोग और क्या चार मीनार पर ईरानी चाय के दुकानदार, पाँच वक्त के नमाज़ी. सबको इस ज़ख़्म को झेलना पड़ा है.
कभी आप हैदराबादी पान की गिलोरियों से पहले यहाँ चार मीनार पर ईरानी चाय और कुछ ख़ास नमकीनों, फैनियों का मज़ा लें तो जात-धरम का फ़र्क भूल जाएं. शाम को तबे पर सिकते पराठे और धुंधली रौशनी में नहाई हुई मक्का मस्जिद यहाँ की फ़िज़ा और और शानदार और अमनपसंद बनाती हैं.
फिर कौन बिगाड़ रहा है यह तस्वीर... ये कौन कर रहा है... कौन है उनका रहबर और कैसी है यह रहबरी. किस मजहब के हैं ये... कौन से भगवान और पैगंबर ने इन्हें इसकी इजाज़त दी है.
इसपर फ़ैज़ की कुछ पंक्तियाँ ध्यान आती हैं-
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से तल्ख,
न उनकी रीत नई है न अपनी प्रीत नई.
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल,
न उनकी हार नई है, न अपनी जीत नई...
इसी हौसले से हमें इस स्थिति से भी उबरना है. माहौल ख़राब करने वाले भूख से हो रही मौत के सवाल को नहीं जानते. न ही बेरोज़गारी के दंश को समझते हैं. वो एक कथित मजहबी मकसद की बात करते हैं पर उनसे बड़ा अधर्मी, उनसे बड़ा काफ़िर कोई नहीं. इन्हें सिरे से ख़ारिज करना चाहिए.
2 comments:
beshak behad hi majboot shabdon ka istmal kiya hai aapne apni baat kahne ke liye par baat baatcheet par hi khatm ho jati hai. lafzon ko khoobsurti se bunne ki kala mein koi shak nahi ki aap mahir hain. par janab likh dene se inklaab hua hai kaheen? khair likhne ka andaaz bahot khoob..........
ghgfh
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